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पुलिस बनाम जनता: अविश्वास की दीवारें और भरोसे का रास्ता

— ज़मीर आलम, विशेष लेख | ‘सलाम खाकी’

भारत में पुलिस सिर्फ एक यूनिफॉर्म नहीं… यह सुरक्षा, अनुशासन, व्यवस्था और विश्वास का प्रतीक है। लेकिन असलियत यह है कि जनता और पुलिस के बीच का रिश्ता अक्सर टकराव और संदेह से भरा दिखाई देता है। सवाल सीधा है—आख़िर जनता पुलिस से संतुष्ट क्यों नहीं है?
और जवाब उतना ही जटिल, जितना भारतीय समाज का ताना-बाना।


1. अपेक्षाएँ आसमान पर, ज़मीनी चुनौतियाँ भारी

लोग police को सुपरहीरो की तरह हर समस्या का तुरंत समाधान करने वाला मान लेते हैं—
• साइबर अपराध हो,
• घरेलू हिंसा,
• गुमशुदगी,
• या जटिल आपराधिक जांच…

जनता चाहती है कि हर केस तुरन्त सुलझे। मगर सच यह है कि पुलिस को कानूनी प्रक्रियाओं, तकनीकी जांचों, स्टाफ की कमी और संसाधनों की दिक्कत से जूझना पड़ता है।
धीमी प्रक्रिया जनता को “पुलिस सुस्त है” जैसा गलत संदेश देती है।


2. कुछ का गलत व्यवहार, पूरी फोर्स की छवि पर बोझ

कभी रिश्वत, कभी पक्षपात, कभी कठोरता—कुछ पुलिसकर्मियों की गलतियाँ पूरे विभाग की छवि बिगाड़ देती हैं।
अगर किसी प्रभावशाली व्यक्ति का केस तुरंत निपट जाए और गरीब व्यक्ति की शिकायत में देरी हो, तो जनता का भरोसा टूटना स्वाभाविक है।

विश्वास टूटता है, सम्मान घटता है—और यही सबसे बड़ी दूरी पैदा करता है।


3. जनशक्ति और संसाधनों की भारी कमी

देश के कई गाँव-कस्बों में एक पुलिसकर्मी पर हज़ारों लोगों की जिम्मेदारी होती है।
• वाहन कम
• स्टाफ कम
• तकनीक कम
• क्षेत्र ज्यादा

ऐसे में जनता को responsiveness कम लगती है।
मगर असलियत यह है कि पुलिसकर्मी अपनी क्षमता से कहीं अधिक बोझ ढो रहे होते हैं।


4. राजनीतिक और प्रशासनिक दबाव— निष्पक्षता सवालों में

भारत की पुलिस पर निष्पक्षता के सवाल अक्सर उठते हैं।
• चुनावों में
• धरना-प्रदर्शनों में
• संवेदनशील मामलों में

पुलिस को राजनीतिक या प्रशासनिक निर्देशों के बीच संतुलन साधना होता है। जनता इसे पक्षपात मानती है।
नतीजा—दूरी बढ़ती है, भरोसा कमजोर होता है।


5. सोशल मीडिया का दौर: अच्छाई दब जाती है, बुराई वायरल हो जाती है

आज एक छोटी गलती की वीडियो क्लिप लाखों लोगों तक पहुँच जाती है।
मगर वही पुलिसकर्मी जब—
• किसी बच्चे की जान बचाता है,
• बुजुर्ग को घर पहुँचाता है,
• चोरी का सामान बरामद करता है,
• रात भर बारिश में ड्यूटी करता है…

तो यह अच्छी खबरें उतनी तेज़ी से वायरल नहीं होतीं।
गलतियां सुर्खियाँ बनती हैं, पर मेहनत हाशिये पर रह जाती है।


6. असुरक्षा की भावना—भले पुलिस मेहनत करे, डर हावी रहता है

कई जगह अपराध भले कम हो जाएं, पर जनता की डर की भावना बनी रहती है।
यदि लोग रात में सड़क पर चलने से डरते हैं, तो वे पुलिस की मेहनत को कम आंकने लगते हैं।

यानी जनता की धारणा और पुलिस की वास्तविक मेहनत के बीच भारी अंतर मौजूद है।


7. पुलिसकर्मियों का मानसिक दबाव—इंसानियत भी थक जाती है

पुलिसकर्मी क्या झेलते हैं, यह कम ही लोग समझते हैं—
• हिंसा,
• दुर्घटनाएँ,
• हत्या-जाँच,
• रातभर गश्त,
• पारिवारिक जीवन का अभाव,
• लगातार तनाव

लगातार तनाव कभी-कभी उनके व्यवहार को प्रभावित करता है और जनता इसे रूखापन या कठोरता समझ लेती है।


केस स्टडी: सोशल मीडिया और जनता की मानसिकता

सोशल मीडिया ने पुलिस को आँखों के सामने ला दिया, लेकिन साथ ही हर घटना को “जजमेंट की बाजार” में बदल दिया।
वायरल वीडियो अक्सर अधूरा सच दिखाते हैं और पूरा विभाग उनकी कीमत चुकाता है।


समस्या सिर्फ पुलिस की नहीं — पूरा सिस्टम शामिल है

पुलिस से जनता की नाराज़गी के पीछे कारणों का एक पूरा मिश्रण है—
• अवास्तविक अपेक्षाएँ
• संसाधनों की कमी
• कुछ कर्मियों की गलतियाँ
• राजनीतिक हस्तक्षेप
• सोशल मीडिया का दबाव
• असुरक्षा की भावना

इसलिए समाधान भी सामूहिक होना चाहिए।


हमारा रास्ता: जनता + सरकार + पुलिस = भरोसे की त्रिकोणीय ताकत

यदि तीनों इकाइयाँ मिलकर—
• संवाद बढ़ाएँ
• पारदर्शिता लाएँ
• पुलिस का आधुनिकिकरण करें
• स्टाफ बढ़ाएँ
• जनता की शिकायतों को संवेदनशीलता से सुना जाए
• मीडिया सकारात्मक प्रयासों को भी जगह दे

तो अविश्वास की दीवारें टूट सकती हैं और सुरक्षा का मजबूत माहौल तैयार किया जा सकता है।


पुलिसकर्मियों के लिए एक सच्ची श्रद्धांजलि

आखिर में, जनता को भी यह समझना होगा कि—
पुलिसकर्मी भी इंसान हैं।
वे हमारे लिए रातें जगते हैं, त्योहार छोड़ते हैं, जान जोखिम में डालते हैं।

और सच यही है—

“सैकड़ों अक़्लमंद मिलते हैं,
काम के लोग चंद मिलते हैं,
जब मुसीबत आती है,
तब ‘पुलिस’ के अलावा
सबके दरवाज़े बंद मिलते हैं।”


✍️ पत्रकार – ज़मीर आलम

देश की एकमात्र पुलिस-समर्पित पत्रिका “सलाम खाकी” के लिए विशेष लेख
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