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कैप्टन_हनीफउद्दीन23 अगस्त 1974 यौमें पैदाईश

कारगिल हीरो वीर कैप्टन हनीफउद्दीन की यौमें पैदाईश पर खिराज ए "अकीदत"

हनीफ उद्दीन का जन्म 23 अगस्त, 1974 को दिल्ली में हुआ था. जब वे 8 साल के थे तब उनके पिता का देहांत हो गया था. उनकी माँ हेमा अज़ीज़ एक शास्त्रीय संगीत गायिका हैं, जिन्होंने दिल्ली में संगीत नाटक अकादमी और कथक केंद्र के लिए काम किया है. उनकी माँ हेमा का जन्म हिन्दू परिवार में हुआ था , परन्तु शादी के समय इस्लाम कबूल लिया था,
वे बहुत ही स्वाभिमानी महिला थी, एक बार जब स्कूल में अनाथ बच्चों को फ्री यूनिफॉर्म मिल रही थी तो हेमा जी ने उन्हें वो यूनिफॉर्म लेने से मना कर दिया था और कहा था कि स्कूल में जाकर बोलो कि मां पर्याप्त कमाती है. दिल्ली के शिवाजी कॉलेज से ग्रेजुएशन करने वाले हनीफ एक अच्छे गायक भी थे. वे हमेशा से इंडियन आर्मी में भर्ती होना चाहते थे,

ग्रेजुएशन के बाद वे सेना में भर्ती की तैयारी जुट गए, बिना किसी विशेष मार्गदर्शन के उन्होंने टेस्ट पास किया और ट्रेनिंग में भी अच्छे अफसरों में अपनी जगह बनाई, 7 जून, 1997 को उन्हें राजपुताना राइफल्स की 11वीं बटालियन में सियाचिन में कमीशन किया गया, बाद में, कारगिल युद्ध के दौरान उनकी बटालियन को लद्दाख के टर्टुक में तैनात किया गया था,
हनीफ बहुत खुश मिजाज वाले इंसान थे, अक्सर वे अपने सैनिक साथियों का गाकर हौंसला बढ़ाते थे। वे हमेशा अपना म्यूजिक सिस्टम अपने साथ रखते थे, उनके साथी सैनिकों के बीच भी वे काफी लोकप्रिय थे. वे कारगिल के शुरूआती दिन थे और उस वक़्त दुश्मन के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध थी,

6 जून 1999 को टर्टुक क्षेत्र में 18,000 फीट की ऊंचाई पर ऑपरेशन थंडरबॉल्ट में 11वीं राजपुताना राइफल्स की टुकड़ी तैनात की गई थी। उनका मिशन इस क्षेत्र में एक मजबूत पकड़ बनाना था जिससे सेना को दुश्मन सैनिकों की गतिविधियों की निगरानी करने में मदद मिले। इस ऑपरेशन को हनीफ ने लीड किया थी,

4 और 5 जून की रात को महत्वपूर्ण कदम उठाए और पास की जगहों पर कब्जा कर लिया, वे निरंतर आगे बढ़ रहे थे लेकिन दुश्मन ने उनकी गतिविधि भांप ली और गोलीबारी शुरू कर दी.इसके जबाव में भारतीय सेना ने भी गोलियाँ चलानी शुरू की. उन्होंने खुद सामने जाकर दुश्मन का ध्यान भटकाया ताकि उनकी सेना पास की सुरक्षित जगह पर पहुंच जाये,

दुश्मन उन पर हर तरफ से गोलियाँ बरसा रहा था, उनको कई गोलियां लग गईं. साथी सैनिको ने भी मोर्चा लगा लिया और उनको उठाने की कोशिश करते रहे लेकिन दुश्मन ऐसी जगहों पर जमा हुआ था और वहां से छुपकर भीषण गोलीबारी कर रहा था कि - साथी सैनिक उन तक पहुँच ही नहीं सके. युद्ध के अंत तक भी सेना उनके मृत शरीर को नहीं ढूंढ सकी,

कैप्टन हनीफ के बलिदान की खबर जब जब उनकी माँ को मिली तो उन्होंने हिम्मत नहीं हारी बल्कि गर्व पूर्वक कहा कि- वो एक ऑन ड्यूटी ऑफिसर था और उसने जो किया वो अपने देश की रक्षा के लिए किया. यही उसका कर्तव्य था. वो अपने बेटे से ये उम्मीद नहीं करती थीं कि वो अपनी जान बचाने के लिए पलट कर वापस आ जाए,

40 दिन तक कैप्टन हनीफ शव नहीं खोजा जा सका. उस समय के आर्मी चीफ जनरल वी.पी.मलिक ने उनसे कहा कि वो उनके बेटे का शव नहीं खोज पा रहे हैं क्योंकि जब भी वो कोशिश करते हैं दुश्मन गोलियां बरसाना शुरू कर देता है. तब उन्होंने कहा - वो नहीं चाहतीं हैं कि उनके बेटे के शव को लाने के कारण किसी अन्य सिपाही की जान जाए,

इस बहादुरी और साहस के लिए कैप्टन हनीफ को मृत्योपरांत वीर चक्र प्रदान किया गया. आज भी हनीफ के घर में उनके मेडल और सम्मान से सजा एक कोना उनकी बहादुरी की गाथा गाता है। 

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