✍ ज़मीर आलम, प्रधान संपादक, सलाम खाकी (नई दिल्ली)
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"डर — एक मनोवैज्ञानिक हथियार जो समाज को अंदर से खोखला करता है, और अफवाह — उसका सबसे बड़ा औजार।"
हज़ारों वर्षों से एक बड़ा तबका डर के साए में जीता आया है। समाज का एक बड़ा हिस्सा ऐसा रहा है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी डर की विरासत अपने साथ ढोता आया है। कभी भूत-प्रेत के नाम पर, कभी जात-पात और धर्म के नाम पर, तो अब आधुनिक युग में अफवाहों के ज़रिए समाज को भयभीत करने का यह कुत्सित खेल जारी है।
डर अब इंसान की मानसिकता का हिस्सा बन गया है, और यही कारण है कि कुछ लोग इसे हथियार बनाकर दूसरों को आतंकित कर खुद को ताक़तवर महसूस करते हैं।
🧠 अफवाहों का मनोविज्ञान: आधुनिक समाज की चुनौती
आज के वैज्ञानिक और डिजिटल युग में जब ज्ञान, तर्क और सूचना की कोई कमी नहीं है, तब भी यदि कोई समाज अफवाहों के जाल में उलझ जाए — यह केवल चिंता की बात नहीं, शर्मनाक स्थिति है।
सोचिए, जब राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली और उसके आसपास के इलाके — जिन्हें शिक्षित, जागरूक और प्रगतिशील माना जाता है — वहां डर फैलाने वाले अफवाहबाज़ सक्रिय हों, तो यह हमारी सामाजिक चेतना पर एक करारा तमाचा है।
🚨 कौन हैं ये अफवाहबाज़? इन्हें कैसे पहचानें?
हममें से हर किसी ने कभी न कभी इन चेहरों को अपने आस-पास देखा है:
- 🧍♂️ बेरोजगार युवा, जो बरसात के मौसम में रात भर नुक्कड़ों पर मंडराते हैं।
- 🗣️ वे लोग जो भोले-भाले ग्रामीणों को डराकर उनका मज़ाक उड़ाते हैं।
- 🎭 राजनीतिक एजेंडा चलाने वाले जो डर के नाम पर समाज को बांटते हैं।
- 🚶♂️ देर रात किसी की बीमारी या चिकित्सकीय आपातकाल को भी गलत संदर्भ में देखने वाले।
- 🤕 मानसिक रूप से असंतुलित या मंद बुद्धि व्यक्ति जो रास्ता भटक गए हों।
- 🍺 नशे के शिकार लोग जिनकी हरकतें सामान्य से भिन्न हो सकती हैं।
- 🎭 वे जो खुद को पीड़ित बताकर हमदर्दी बटोरने की कोशिश करते हैं।
- 👮♂️ और अंततः वे लोग जो ‘पहरा देने’ के बहाने समाज के ही खिलाफ साजिश रचते हैं।
⚠️ गंभीर परिणामों से बचने की चेतावनी
डर के माहौल में उठाया गया जल्दबाज़ी का कोई भी कदम, आपकी जिंदगी को पछतावे की दलदल में धकेल सकता है। किसी निर्दोष को अपराधी समझना, किसी बीमार को संदिग्ध मान लेना या किसी अपरिचित को शत्रु समझ लेना — ये सब मानवीय मूल्यों के विपरीत हैं।
👮♀️ पुलिस का भरोसा बनाएं — अफवाहों पर नहीं
उत्तर प्रदेश की पुलिस और अन्य राज्य इकाइयों ने समय-समय पर बड़े अपराधियों को उनके अंजाम तक पहुंचाया है। सुरक्षा और कानून-व्यवस्था की जिम्मेदारी यदि पुलिस निभा रही है, तो सामाजिक जागरूकता और संयम की जिम्मेदारी आम नागरिक की बनती है।
डर के खिलाफ यह जंग संविधान, सद्भाव और समझदारी से लड़ी जानी चाहिए — न कि अफवाहों, हिंसा या सामाजिक प्रतिशोध से।
🕊️ समापन: समझदारी की मिसाल बनें, भीड़ की नहीं
- डरें नहीं, डराएं नहीं।
- खुद भी समझें, और दूसरों को भी समझाएं।
- अफवाह की हवा निकालें, सच्चाई की मशाल जलाएं।
- संदेह की जगह संवाद को अपनाएं।
✍ ज़मीर आलम
प्रधान संपादक, सलाम खाकी राष्ट्रीय समाचार पत्रिका, नई दिल्ली
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